माँ और बेटी खेल रहे थे। मौसम में सीलापन था। बारिश रह-रहकर गिर रही थी। छठे माले की खिड़कियों से देखने पर कुछ हाथ की दूरी पर बादल तैर रहे थे। मैं आदतन ख़यालों में खोया हुआ। कल्पना के सांपों पर सवार था। वे साँप इसलिए थे कि सीधे चलते हुए भी डरावने बल खाते भाग रहे थे। हज़ार एक किलोमीटर कार में चलने से दिमाग़ में बस जाने वाले हिचकोले यथावत थे और तय था कि दो दिन बाद बाड़मेर लौट जाना है। जैसे केंकड़े सीपियों के खोल में घुसकर ख़ुश हो जाते हैं, ठीक ऐसे ही मेरा रेगिस्तान लौटना होता है। वहाँ लौटने से पहले यहाँ लगातार बारिश को देखना अलग सुख था। सब जगहों की बारिशें अलग होती हैं। आँखों की बारिशें सबसे अलग होती हैं। कभी ख़ुशी, कभी उदासी, कभी प्रतीक्षा या किसी भी भावबोध में आँखें अलग तरह से बरसती हैं। धरती पर होने वाली बारिशें भी इसी तरह बहुत अलग हैं। रेगिस्तान की कड़क गर्मी के बाद उमस जब चरम पर पहुंचती है। बादल अचानक बेसब्री से बरसने लगते हैं। जैसे उनको तुरंत लौट जाने की हड़बड़ी हो। सचमुच वे घनघोर बारिश भी करें तो भी घड़ी भर में गायब हो जाते हैं। आकाश खुलकर साफ़ हो जाता है। मिट्ट...
हथकढ़
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]