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समय की बारिशें

माँ और बेटी खेल रहे थे। मौसम में सीलापन था। बारिश रह-रहकर गिर रही थी। छठे माले की खिड़कियों से देखने पर कुछ हाथ की दूरी पर बादल तैर रहे थे। मैं आदतन ख़यालों में खोया हुआ। कल्पना के सांपों पर सवार था। वे साँप इसलिए थे कि सीधे चलते हुए भी डरावने बल खाते भाग रहे थे।  हज़ार एक किलोमीटर कार में चलने से दिमाग़ में बस जाने वाले हिचकोले यथावत थे और तय था कि दो दिन बाद बाड़मेर लौट जाना है। जैसे केंकड़े सीपियों के खोल में घुसकर ख़ुश हो जाते हैं, ठीक ऐसे ही मेरा रेगिस्तान लौटना होता है। वहाँ लौटने से पहले यहाँ लगातार बारिश को देखना अलग सुख था।  सब जगहों की बारिशें अलग होती हैं। आँखों की बारिशें सबसे अलग होती हैं। कभी ख़ुशी, कभी उदासी, कभी प्रतीक्षा या किसी भी भावबोध में आँखें अलग तरह से बरसती हैं। धरती पर होने वाली बारिशें भी इसी तरह बहुत अलग हैं।  रेगिस्तान की कड़क गर्मी के बाद उमस जब चरम पर पहुंचती है। बादल अचानक बेसब्री से बरसने लगते हैं। जैसे उनको तुरंत लौट जाने की हड़बड़ी हो। सचमुच वे घनघोर बारिश भी करें तो भी घड़ी भर में गायब हो जाते हैं। आकाश खुलकर साफ़ हो जाता है। मिट्ट...

डॉ सोमवीर जाखड़ – एक वीराना उग आया

क्या फूल भी किसी फूल की स्मृति में उदास होते हैं? इस बात का ठीक जवाब दे सकने वाला आँखों से ओझल हो चुका था। यहीं-कहीं होने की ख़ुशबू को हाथ बढ़ाकर छुआ नहीं जा सकता था। सब एक दूसरे को छूकर पता कर रहे थे। हर छुअन में एक अतिरिक्त रुलाई दीवारों से टकरा कर दिल को बींधती रही।  पनियल आँखों से रुलाई की लकीरों से भरे चेहरे को नहीं देखा जा सकता है। इसलिए आँखें बाहर देखना चाहती है। बाहर वीराना है। इतनी ख़ाली जगह पर सांस नहीं आती। ख़ालीपन एक भीड़ की तरह घेर लेता है। ख़ालीपन रौंदता हुआ गुज़रता है। मन पददलित होता हुआ पुकारता रहता है। कि क्या इस सब को कहीं से देख रहे हो?  क्या  आपको  पता है? आप से  किसी को झगड़ने, गले लगने और रूठने-मनाने के लिए नई उम्र चाहिए होगी। मैंने देखा आपको जीवन से भरा हुआ। प्रसन्नता से तेज़ कदम चलते हुए , चुप बैठे हुए अचानक उचक कर मुसकुराते हुए , किसी बात पर गंभीर होते हुए और फिर कहते हुए कि अपना तो क्या ही था। बड़ी मुश्किल से जगह बनाई। विश्वविद्यालय के तीन नंबर गेट के पास जब हम पहुंचे तो मैंने कहा “वो सामने चाय की थड़ी और दुकान दिख रही है ? हम देर रात...

चश्मा टूटने का स्वप्न

मैं अपनी डायरी में अर्थहीन और कथानक के हिसाब से छिन्न भिन्न सपनों के बारे में लिखता रहा हूँ। उन सपनों के देखे जाने के कुछ समय पश्चात मुझे कोई उकसाता रहा कि जाओ उनको फिर से पढ़ो। मुझे कोई आशा नहीं होती थी कि उनको दोबारा पढ़ने पर कुछ उपयोगी होगा। लेकिन मुझे अचरज होता था कि उनको पढ़ने पर कुछ संकेत मिलते थे, कुछ तार जुड़ने लगते थे।  आज सुबह मैं स्वप्न में डर गया था। मैंने हाल में फिर से चश्मा बनवाया था। दृष्टि दोष अधिक बढ़ा न था किंतु चश्मे के काँच घिस चुके थे। उनके पार देखना कष्टप्रद था।  चश्मे बहुत महंगे बनते हैं। इसलिए कई महीनों तो मैं अपनी आर्थिक स्थिति को सोचकर नया चश्मा बनवाना स्थगित कर देता था। अक्सर कोशिश करता कि बिना चश्मे के पढ़ सकूँ। लेकिन ये कभी संभव न हुआ। हालाँकि कई बार निकट उपस्थित व्यक्ति को अपना व्हाट्स एप मैसेज दिखाया और पूछा कि क्या लिखा है। लिखा हुआ सुनने के बाद उसका उत्तर कम शब्दों में ठीक ठीक लिखने में सफल रहा था।  कुछ दिन पहले चश्मे की दुकान पर गया। मन को कठोर करके नया चश्मा बनवा लिया। इतने सारे रुपये देते हुए मुझे पीड़ा भी हुई। एक चिंता रही कि ये चश्मा...

उज्जैन में धाट के स्वर

पूजा स्थलों के अनेक रिच्युयल होते हैं। अक्सर जोड़े में या आगे पीछे दर्शन करने की मान्यता बड़ी है। आप कहीं जाएँ तो कोई कह देगा कि इसके बाद आपको वहाँ दर्शन करने होंगे वरना ये अधूरा रह जाएगा। मैं ऐसे कभी कहीं गया नहीं। वैसे भी मंदिरों और दरगाहों पर मेरा जाना इसलिए हुआ है कि जो साथ था, उसका गहरा मन था। उनके साथ गया। फिर जब उन्होने कहा कि अब यहाँ भी चलना है तो मैं बाहर ही रुक गया। आप जाकर आइए। मैं यहीं बैठा हूँ। थक गया हूँ। जब कोई बच्चा मिट्टी से खेल रहा होता है तब आप उसके साथ खेलने लगते हैं। आप खेलते हैं क्योंकि आप उससे प्यार करते हैं। बच्चा ईश्वर का दूत है। वह मिट्टी को परमानंद समझता है। आप अज्ञानी उसे मिट्टी समझते हैं। मैं भी ऐसे ही मंदिर दरगाह चला जाता हूँ। मुझे साथ वाले की आस्था पर भरोसा है। मैं मानता हूँ कि उसका जीवन अच्छा हो जाएगा। तुरंत कोई चमत्कार न हुआ तो भी वह भीतर से मजबूत रहेगा।   जीवन बहुत कठिन है। इसे बिताने को बहुत जुगत लगानी पड़ती है। हम फिर से ई रिक्शा पर थे। रूपेश जी के घर जा रहे थे। वहाँ हमको लंच करना था। हमारे बार-बार मना करने पर भी रेगिस्तानी की मनवार भरी मेजबानी...

क्षिप्रा के तट

भोपाल, दिल के कोने में भीगा सीला नाम है। [सात] रेल गाड़ी डेगाना स्टेशन से निकल चुकी थी। हम सब लोगों के बैड रोल खुल गए थे। कोच में अभूतपूर्व शांति थी। कोई यात्री लाउड स्पीकर पर नहीं था। हमें दिन की यात्रा की थकान थी। टिकट हमारा भोपाल का था लेकिन बाद में हमने उज्जैन उतरना तय लिया। हालांकि रात के नौ भी नहीं बजे थे। हम सब अपनी जगह पर पहुँच चुके थे। मैंने कुछ देर मोबाइल में झांक लेना चाहा लेकिन लगा कि नींद आ जाएगी। न नींद आती थी न मोबाइल में कुछ देखने को था। मैं रेल यात्रा से जुड़ी कुछ कहानियाँ याद करने लगा। मुझे देजो कोस्तोलान्यी की कहानी लुटेरा काफी प्रिय है। रेल में यात्रा कर रही किसी कमजोर स्त्री को लूट कर हत्या कर देने के लिए एक व्यक्ति रेल में सवार होता है। वह अपना शिकार चुन लेता है। अकेली कृशकाय स्त्री, जैसी कि उसे चाहना की थी। वह उसके आस पास बना रहता है। अचानक वह खाँसने लगती है। खांसी में उसकी सांस अटकने लगती है। वह अपने आप को रोक नहीं पाता। एक ग्लास पानी स्त्री को देता है। योजनानुसार हत्या के बाद उसे अपने हाथ स्प्रिट से धोने थे। वह अपनी जेब से रुमाल निकाल कर उस पर थोड़ा स्प्रिट छिड़...

रेल केवल पटरी पर नहीं चलती

हम बोझ उठाए हुए किसी जगह की ओर क्यों बढ़ते हैं? हम कहीं जाते हैं तो कोई चाहना तो होती होगी। प्रेमी को प्रेमिका से मिलने की, ख़ानाबदोश को नया ठिकाना तलाश लेने की, चित्रकार को किसी की आँखों में रंग भर देने की, व्यापारी को सौदा पट जाने की, शिकारी को शिकार मिल जाने की माने जो कोई कुछ चाहता है, वह यात्रा करता है। मैं किसलिए छुट्टी लेकर, अपना रुपया खर्च करके, मित्रों को सहेजते हुए भोपाल की ओर जा रहा हूँ? रेलवे स्टेशन पर बने पारपथ से उतरते हुए यही सोच रहा था। किसी ने तुम्हारी किताब छाप दी तो क्या ये कोई उपकार की बात है? कोई तुमसे तुम्हारे सामने हंस कर बोल लिया तो क्या कोई अहसान है? खोजो वह तंतु क्या है? जो असल में तुमको उसके करीब होने को उकसाता है।  यही सोचते हुए मैं सीढ़ियाँ उतर रहा था। मेरे कंधे पर एक थैला था। मेरे हाथ में एक पानी की बोतल थी, जो आधी खाली थी। मेरे आस-पास बोरिया भरे हुए कुछ लोग थे, जो कहीं पहुँच जाना चाहते थे। मेरे साथ एक छोटा लड़का था, जो सिनेमेटोग्राफर बनाना चाहता है। मेरे ठीक पीछे एक अधेड़ आदमी था, जो अपनी तनख्वाह से दो बच्चों को पालना संवारना चाहता था। जो अपनी संगिनी को स...

मन का तड़ित चालक

एक लाइटनिंग कंडक्टर होना चाहिए था। पुराने समय के विद्यार्थियों की चोटी की तरह सर पर लगा होता। सारे सफ़र, सब दृश्य, सब प्रेमिल संग किसी आवेश की तरह दिमाग में जमे नहीं रहते। वे विद्युत प्रवाह की तरह दिमाग से दिल से होते हुए पाँवों के रास्ते धरती में समा जाते। हम कोरे खाली हो जाते। आगे बढ़ जाते। सब कुछ यथावत हो जाता। एक बहती हुई नदी पीछे छूट जाती। एक ठहरी हुई निगाह आगे बढ़ जाती। सब छुअन हवा के संग कहीं खो जाती। मद भरे प्यालों की स्मृति अलोप हो जाती। रात की नीरवता में चुप खड़े रास्तों और हवा की शीतलता के अहसास भूल के किसी खाने में जा गिरते। सफ़ेद टी पर दिखती शहरी धुएँ की हल्की परतें, जींस पर उगी सलवटें, हाथों से आती लोहे की गंध को धोकर साफ कर लिया। कोई खुशबू उनमें नहीं बची मगर दिल उन्हीं सब को महसूस करता रहा। सफ़र के हिचकोले, घर में थमे भी नहीं थे कि ग्रहों की चाल ने कहा। अपनी कार बाहर निकालो और चल पड़ो। सफ़र फिर शुरू हो गया। कहीं गहरी नींद का कोई झौंका जबरन आया। जाग में भी उनींदापन हावी हो गया। कार आहिस्ता कर विंडो ग्लास नीचे करके तपती सड़क से उठते भभके से आँखें सेक ली। आँखें देखने लायक हुई तो उनम...